08 October 2025

मुशा'इरा है कि पानी का बुलबुला है बस ये खेल जितना भी है एक रात का है बस शाइर : सैफ़ बाबर (Mohd Saif Babar) مُشاعرہ ہے کہ پانی کا بُلبُلا ہے بسیہ کھیل جِتنا بھی ہے ایک رات کا ہے بس.. شاعر : سیف بابر( محمد سیف بابر )

मुशा'इरा है कि पानी का बुलबुला है बस 
ये खेल जितना भी है एक रात का है बस

सुख़न लिखा है दुकानों पा और दुकानों में 
वही जो मेलों में बिकता है बिक रहा है बस

कलाम मांग के लाया है बस ये ख़ूबी है 
यूँ गा रहा है कि ख़ुद ने अभी लिखा है बस

न सिर्फ़ ये है कि नाराज़ सबसे ख़ुद से भी अब 
वो दौर आया है हर शख़्स ही ख़फा है बस

बचा तो कुछ भी नहीं पास शाहज़ादे के 
मगर अभी भी लुटेरी वही अना है बस

मैं जैसे उभरा कहानी से तो लगा किरदार
तिरे लिखे हुए किरदार से जुदा है बस

किसी के वास्ते होंगे ख़ुदा सियासी लोग
क़सम ख़ुदा की मिरे वास्ते ख़ुदा है बस

उड़ानें ज़ब्त हवाओं ने कर तो ली हैं मगर
है आसमाँ पा परिंदा तो हौसला है बस

महक, ये फूल, हवा, पानी, "सैफ़" हर शय में 
सिवा ख़ुदा के कोई है! तो फिर ख़ुदा है बस
Shair
Saif Babar
(Mohd Saif Babar)
+91 9936008545

   مُشاعرہ ہے کہ پانی کا بُلبُلہ ہے بس  
یہ کھیل جِتنا بھی ہے ایک رات کا ہے  بس

سُخن لِکھا ہے دُکانوں پہ اور دُکانوں میں
وہی جو میلوں میں بِکتا ہے بِک رہا ہے بس

کلام مانگ کے لایا ہے بس یہ خوبی ہے
یوں گا رہا کہ جیسے ابھی لِکھا ہے بس

نہ صرف یہ ہے کہ ناراض سب سے خُود سے بھی اب
وہ دور آیا ہے ہر شخص ہی خفا ہے بس

بجا تو کُجھ بھی نہیں پاس شاہزادے کے
مگر ابھی بھی لُٹیری وہی انا ہے بس

میں جیسے اُبھرا کہانی سے تو لگا کِردار
تِرے لِکھے ہوئے کِردار سے جُدا ہے بس

کِسی کے واسطے ہونگے خُدا سِیاسی لوگ
قسم خُدا کی مِرے واصطے خُدا ہے بس

اُڑانیں ضبط ہواؤں نے کر تو لیں ہیں مگر
ہے آسماں پہ پرِندہ تو حوصلہ ہے بس

مہک، یہ پھول، ہوا، پانی "سیف" ہر شے میں
سوا خُدا کے کوئی ہے !  تو پھِر خُدا ہے بس
شاعر
سیف بابر
(محمد سیف بابر)
+91 9936008545

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07 October 2025

नशा नशे से बढ़े और सुरूर हो जाए - पियो कुछ ऐसे कि ज़िन्दा शुऊर हो जाए.. Shair: Saif Babar (Mohd Saif Babar) نشہ نشے سے بڑھے اور سُرور ہو جائے - پیو کُچھ ایسے کہ زندہ شُعور ہو.. شاعر - سیف بابر( محمد سیف بابر )

नशा नशे से बढ़े और सुरूर हो जाए
पियो कुछ ऐसे कि ज़िन्दा शुऊर हो जाए

वो जिस में रेंगते कीड़े हों क्यों पिएगा भला
वो जिस के नाम शराबे तहूर हो जाए

बहुत शरीफ़ बने हो कहीं शराफ़त ही
तुम्हारा जुर्म तुम्हारा क़ुसूर हो जाए

अमीर ! तेरी अमीरी तो तब लगे सच्ची
जो मुफ़लिसी तिरे भाई की दूर हो जाए

ये सब से आगे निकलने की होड़ में ही कहीं 
न हो के ख़ुद से तू इक रोज़ दूर हो जाए

जमाले हुस्न का अब उनके क्या ही कहना है 
जिधर वो देखें उधर नूर-नूर हो जाए

ख़ुदा मुझे तो न दे वो उबूर फ़न पर "सैफ़"
उबूर हद से जो बढ़ कर ग़ुरूर हो जाए
शाइर
सैफ़ बाबर
(Mohd Saif Babar)
+91 9936008545

نشہ نشے سے بڑھے اور سُرور ہو جائے
پیو کُچھ ایسے کہ زندہ شُعور ہو جائے

وہ جِس میں رینگتے کیڑے ہوں کیوں پیےگا بھلا
وہ جسکے نام شرابِ طَہُور ہو جائے

بہت شریف بنے ہو کہیں شرافت ہی
تُمہارا جُرم تُمہارا قُصور ہو جائے

امیر ! تیری امیری تو تب لگے سچّی
جو مُفلسی تِرے بھائی کی دور ہو جائے

یہ سب سے آگے نِکلنے کی ہوڑ میں ہی کہیں
نہ ہو کے خود سے تو اِک روز دور ہو جائے

جِمال حسن کا اب اُنکے کیا ہی کہنا ہے
جِدھد وہ دیکھیں اُدھر نور نور ہو جائے 

خُدا مُجھے تو نہ دے وہ عُبور فن پر "سیف"
عُبور حد سے جو بڑھ کر غرور ہو جائے
شاعر
سیف بابر
(محمد سیف بابر)
+91 9936008545
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वही अदब वही क़द्रें वही घराना हैसरों पे अपने बुज़ुर्गों का शामियाना है शाइर : Saif Babar (Mohd Saif Babar) Wohi Adab Wohi Qadren Wohi Gharana Hai... شاعر : سیف بابر (محمد سیف بابر)

वही अदब वही क़द्रें वही घराना है
सरों पे अपने बुज़ुर्गों का शामियाना है

बड़ों से आज भी हम सबकी जाँ लरज़ती है
हमारे गाँव का रुतबा वही पुराना है

ख़ुदा का शुक्र नई रौशनी से दूर हैं हम 
ख़ुदा का शुक्र कि रौशन ग़रीब ख़ाना है 

ये बे-हयाई ये नंगे बदन ये कम कपड़े 
ये लग रहा है क़यामत को आ ही जाना है 

मिली है माँ से नसीहत की मुझको भी दौलत
मिरे भी पास दुआओं का इक ख़ज़ाना है 

ये ही तो फर्क़ है ऐ "सैफ़" उस में और मुझ में 
उसे जहान मुझे आख़िरत बनाना है 
शाइर 
सैफ़ बाबर 
(मोहम्मद सैफ़ बाबर)
+91 9936008545
وہی ادب وہی قدریں وہی گھرانا ہے
سروں پہ اپنے بزرگوں کا شامیانہ ہے

بڑوں سے آج بھی ہم سپ کی جاں لرزتی ہے
ہمارے گاؤں کا رُتبہ وہی پُرانا ہے

خُدا کا شُکر نئی روشنی سے دور ہیں ہم
خُدا کا شُکر کہ روشن غریب خانہ ہے

یہ بے حیائی یہ ننگے برن یہ کم کپڑے
یہ لگ رہا ہے قیامت کو آ ہی جانا ہے

مِلی ہے ماں سے نصیحت کی مُجھ کو بھی دولت
مِرے بھی پاس دعاؤں کا اِک خزانہ ہے

یہ ہی تو فرق ہے اے "سیف" اُس میں اور مُجھ میں
اُسے جہان مُجھے آخِرت بنانا ہے
شاعر
سیف بابر
(محمد سیف بابر)
+91 9936008545 
Aaj Ek Baar Phir 8 December 2014 Ko Facebook Par Post Ki Gayi Aapke Shair Dost Saif Babar Mohd Saif Babar Ki Ye Ghazal Hazir Hai Dobara Facebook Par Post Karne Ke Baad Phir Se Bloger Par Bhi.... 

Wo Jo Hain Jaan Bhool Jate Hain Rishte Nadaan Bhool Jate Hain... Shair- Saif Babar (Mohd Saif Babar)

Taza Ghazal اردو /देवनागरी
وہ جو ہیں جان بھول جاتے ہیں
رِشتے نادان بھول جاتے ہیں
 
بچّے شادی کے بعد ماں کو بھی اب
ہوں نہ حیران بھول جاتے ہیں

یاد رکھتے ہیں کُچھ جو کہہ دو لوگ
اور اِحسان بھول جاتے ہیں

وقت پڑنے پہ سارے رِشوت خور
جان پہچان بھول جاتے ہیں

ہم تعلُّق میں ہو بھی جائے تو
اپ نا نُقصان بھول جاتے ہیں

جو غریبوں کے حق میں ہو وہ وزیر
کر کے اِعلان بھول جاتے ہیں

"سیف" ابّا کی طرح اب ہم بھی
رکھ کے سامان بھول جاتے ہیں
شاعر
سیف بابر
(محمد سیف بابر)
+91 9936008545

वो जो हैं जान भूल जाते हैं 
रिश्ते नादान भूल जाते हैं 

बच्चे शादी के बाद माँ को भी अब 
हों न हैरान भूल जाते हैं 

याद रखते हैं कुछ जो कह दो लोग
और एहसान भूल जाते हैं 

वक्त़ पड़ने प सारे रिश्वतख़ोर
जान पहचान भूल जाते हैं 

हम त'अल्लुक़ में हो भी जाए तो
अपना नुक़्सान भूल जाते हैं

जो ग़रीबों के हक़ में हो वो वज़ीर
करके ऐ'लान भूल जाते हैं

"सैफ़" अब्बा की तरह अब हम भी 
रख के सामान भूल जाते हैं 
शाइर 
सैफ़ बाबर 
(Mohd Saif Babar)
+91 9936008545
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